आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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जंगली सेव
आज रास्ते में और भी कितने ही यात्रियों का साथ था, उसमें कुछ स्त्रियाँ भी थीं। रास्ते में बिन्ना के पेड़ों पर लगे हुए सुन्दर फल दीखे। स्त्रियाँ आपस में पूछने लगीं यह किस-किस के फल हैं। उन्हीं में से एक ने कहा यह जंगली सेव हैं। न मालूम उसने जंगली सेव की बात कहाँ से सुन रखी थी, निदान यही तय हुआ कि यह जंगली सेव के फल हैं। फल खूब लदे हुए थे। देखने में पीला और लाल रंग मिले हुए बहुत सुन्दर लगते थे और प्रतीत होता था खुब पके हैं।
वह झुण्ड रुक गया। सयानी-सी लड़की पेड़ पर चढ़ गयी, लगता था उसे अपने ग्रामीण जीवन में पेड़ों पर चढ़ने का अभ्यास रहा है। उसने ४०-५० फल नीचे गिराये। नीचे खड़ी स्त्रियों ने उन्हें आपा-धापी के साथ बीना। किसी के हाथ ज्यादा लगे किसी के कम। जिसके हाथ कम लगे थे वह उससे लड़ रही थी जिसने ज्यादा बीने थे। लड़ती जाती थी और कहती जाती थी तूने रास्ता रोककर झपट कर अधिक बीन लिए, मुझे नहीं बीनने दिए। जिसके पास अधिक थे वह कह रही थी मैंने भाग-दौड़कर अपने पुरुषार्थ पर बीने हैं, जिसके हाथ पैर चलेंगे वही तो नफे में रहेगा। तुम्हारे हाथ-पैर चलते तो तुम मुझसे भी अधिक बीनतीं।
इन फलों को अगली चट्टी पर भोजन के साथ खायेंगे, बड़े मीठे और सुन्दर यह होते हैं। रोटी के साथ अच्छे लगेंगे। धोती के पल्लों में बाँधकर वे प्रसन्न होती हुई चल रही थीं। कीमती फल इतनी तादाद में उनने अनायास ही पा लिए। लड़ाई-झगड़ा तो शान्त हो गया, पर ज्यादा-कम बीनने की बात पर मनोमालिन्य जो उत्पन्न हुआ था, वह बना हुआ था। एक-दूसरे को नाराजी के साथ घूर-घूरकर देखती थीं।
चट्टी आई। सब लोग ठहरे। भोजन बना। फल निकाले गए। जिसने चखे उसी ने थू-थू किया। वे कड़वे थे। इतनी मेहनत से लड़-झगड़ कर लाये हुए सुन्दर दीखने वाले जंगली सेव कडुवे और बेस्वाद थे। उसे देख कर उन्हें बड़ी निराशा हुई। सामने खड़ा हुआ पहाड़ी कुली हँस रहा था। उसने कहा “यह तो बिन्नी का फल है, उसे कोई नहीं खाता। इसकी गुठली का तेल भर निकालते हैं। ” बे समझे-बूझे बीनने और लाने-खाने की मूर्खता पर वे सभी स्त्रियाँ सकुचा रही थीं।
मैं भी साथ था। इस सब नजारे के आदि से अन्त तक साथ था, वे आपस में उन फलों का नाम ले लेकर हँसी कर रहे थे। उन्हें हँसने का एक प्रसंग मिल गया था, दूसरों की भूल और असफलता पर आमतौर से लोगों को हँसी आती ही है। केवल पीला रंग और बढ़िया रूप देखकर उनके पका, मीठा और स्वादिष्ट फल होने की कल्पना करना, यह उनकी भूल थे। रूप से सुन्दर दीखने वाली सभी चीजें मधुर कहाँ होती हैं? यह उहें जानना चाहिए था। न जानने पर शर्मिन्दगी उठानी पड़ी और परेशानी भी हुई, आपस में लड़ाई-झगड़ा होता रहा सो व्यर्थ ही था।
सोचता हूँ कि बेचारी इन स्त्रियों की ही हँसी हो रही है और सारा समाज उनके-रूप पर मुग्ध होकर, पतंगे की तरह जल रहा है, उस पर कोई नहीं हँस्ता। रूप की दुनियाँ में सौन्दर्य का देवता पुजता है, तड़क-भड़क, चमक-दमक सबको अपनी ओर आकर्षित करती है और उस प्रलोभन से लोग बेकार की चीजों पर लट्ट हो जाते हैं। अपनी राह खोटी करते हैं और अन्त में उसकी व्यर्थता पर इसी तरह पछताते हैं, जैसे यह स्त्रियाँ बिन्नी के कड़वे फलों को समेटकर पछता रही हैं। रूप पर मरने वाले यदि अपनी भूल समझें तो उन्हें गुणों का पारखी बनना चाहिए; पर यह तो तभी सम्भव है, जब रूप के आकर्षण में अपनी विवेक बुद्धि को नष्ट होने से चा सकें।
बिन्नी के फल किसी ने नहीं खाये। वे फेंकने पड़े। खाने योग्य वे थे भी नहीं। धन-दौलत, रूप-यौवन, राग-रंग, विषय-वासना, मौज-मजा जैसी अणित चीजें ऐसी हैं, जिन्हें देखते ही मन मचलता है; किन्तु दुनियाँ में चमकीली दीखने वाली चीजों में से अधिकांश ऐसी होती हैं, जिन्हे पाकर पछताना और अन्त में उन्हें आज के जंगली सेवों की तरह फेंकना पड़ता है।
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